मेला, मोह और मंत्र
जो लोग बचपन में, अपने छात्र जीवन में, कभी किसी पूजा के आयोजन से जुड़े रहे होंगे, उन्हें, मोह क्या होता है, इसका पता नदी के घाट या समुद्र के तट पर चला होगा.
उस क्षण, जब मंत्रोच्चारों और जयघोषों के बीच, कई हाथ झुकते हैं, माँ दुर्गा या माँ सरस्वती या विनायक की प्रतिमा के चरणों को स्पर्श करते हैं और फिर उन्हीं हाथों से उन प्रतिमाओं को पुल से या नौका से जल में विसर्जित कर देते हैं, अक्सर आँखें भींज जाती हैं, हृदय हहरने लगता है, छोटे बच्चे-बच्चियाँ तो रोने ही लगते हैं.
बेशक विसर्जन के उस मेले में बैंड-बैंजो-ढोल-ताशा-डिस्को-डीजे का संगीत बरसता रहता है, उन्माद में भरे क़दम थिरकते रहते हैं, मगर उस एक क्षण, जब आँखें प्रतिमा को जल में विसर्जित होते देखती हैं, मोह घेर लेता है, मोह का मतलब समझ में आ जाता है.
ये मोह उस प्रतिमा को लेकर हुआ मोह होता है जो तीन-चार दिनों के उत्सव का केंद्र होती है, कुछ दिनों के लिए साथ रहती है.
अगर चरण स्पर्श करने और फिर विसर्जित करनेवाले हाथों को इतना मोह हो सकता है, तो फिर क्या बीतती होगी उन हाथों पर जिन्होंने इन प्रतिमाओं को तैयार किया होगा.
पता नहीं मिट्टी-बाँस-कूची-रंग-सजावट के सामानों के सहारे बड़े जतन से, दिन-हफ़्ते-महीने लगाकर देवी-देवताओं के स्वरूप को साकार करवानेवाले मूर्तिकारों को मोह होता होगा या नहीं?
कहा जा सकता है कि वो मूर्तिकार पैसे लेकर मूर्तियाँ बेचते हैं इसलिए उनका मन व्यवसायी हो जाता होगा.
मगर जिस किसी ने भी अपने जीवन में काग़ज़ के एक पन्ने पर भी कभी कोई चित्र उकेरने की कोशिश की होगी, चिड़िया-सूरज-पेड़-पहाड़ ही क्यों ना बनाया होगा, उन्हें पता होगा कि चाहे कोई रचना किसी भी उद्देश्य से क्यों ना की गई हो, भीतर यदि कल्पना ना हो, जज़्बात ना हो, तो उसमें कोई बात आ ही नहीं सकती.
देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ फ़ैक्ट्रियों में नहीं बनतीं, इंसान के हाथों से बनती हैं, कल्पना से बनती हैं, भावना से बनती हैं.
प्रख्यात बांग्ला साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय ने बताया है कि कैसे पहले के दिनों में मूर्तिकार को बुलाया जाता था, वो घरों में आकर प्रतिमाएँ बनाते थे, और कैसे माँ दुर्गा की प्रतिमा के अंतिम हिस्से - माँ के तृतीय नेत्र - को बनाने से पहले वो काफ़ी देर तक ध्यान लगाते थे, और फिर ब्रश की एक धार से माँ दुर्गा की प्रतिमा को अंतिम रूप दिया करते थे.
जो मूर्तिकार अपनी कल्पना को कूची तक पहुँचाने के लिए ध्यान लगा सकते होंगे, क्या उन्हें मोह नहीं होता होगा?
शायद होता होगा, मगर उन्होंने उस मोह पर विजय पाई होगी. और मोह से भी पहले अपने आत्ममोह पर विजय पाई होगी.
तभी तो मूर्तियाँ दिखती हैं, मूर्तिकार नहीं दिखते, ना ही कहीं उनका नाम तक दिखता है.
ऐसे व्यक्तिपूजन, आत्मप्रतिष्ठा वाले दौर में, जब काम से अधिक नाम की महिमा हो, हीरो-हीरोईन फ़िल्मों में कम टीवी पर अधिक दिखाई देते हों, खेल से अधिक चर्चा खिलाड़ियों की होती हो, रिपोर्टें कम और रिपोर्टर अधिक नज़र आते हों, लेखक-कवि पढ़े कम, दिखाई और सुनाई अधिक देते हों, बहस नेतृत्व और नीतियों को लेकर कम, नेताओं को लेकर अधिक होती हो - ऐसे इस समय में, माँ दुर्गा-माँ सरस्वती-श्रीगणेश की प्रतिमाओं के विसर्जन का वो क्षण, मोह और आत्ममोह को समझने का और उसपर विजय पाने का मंत्र दे जाता है.
वही मंत्र, जो कभी दास कबीर दे गए थे, ये कहकर - उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दरसन का मेला.