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मेला, मोह और मंत्र

अपूर्व कृष्ण अपूर्व कृष्ण | बुधवार, 05 अक्तूबर 2011, 20:21

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जो लोग बचपन में, अपने छात्र जीवन में, कभी किसी पूजा के आयोजन से जुड़े रहे होंगे, उन्हें, मोह क्या होता है, इसका पता नदी के घाट या समुद्र के तट पर चला होगा.

उस क्षण, जब मंत्रोच्चारों और जयघोषों के बीच, कई हाथ झुकते हैं, माँ दुर्गा या माँ सरस्वती या विनायक की प्रतिमा के चरणों को स्पर्श करते हैं और फिर उन्हीं हाथों से उन प्रतिमाओं को पुल से या नौका से जल में विसर्जित कर देते हैं, अक्सर आँखें भींज जाती हैं, हृदय हहरने लगता है, छोटे बच्चे-बच्चियाँ तो रोने ही लगते हैं.

बेशक विसर्जन के उस मेले में बैंड-बैंजो-ढोल-ताशा-डिस्को-डीजे का संगीत बरसता रहता है, उन्माद में भरे क़दम थिरकते रहते हैं, मगर उस एक क्षण, जब आँखें प्रतिमा को जल में विसर्जित होते देखती हैं, मोह घेर लेता है, मोह का मतलब समझ में आ जाता है.

ये मोह उस प्रतिमा को लेकर हुआ मोह होता है जो तीन-चार दिनों के उत्सव का केंद्र होती है, कुछ दिनों के लिए साथ रहती है.

अगर चरण स्पर्श करने और फिर विसर्जित करनेवाले हाथों को इतना मोह हो सकता है, तो फिर क्या बीतती होगी उन हाथों पर जिन्होंने इन प्रतिमाओं को तैयार किया होगा.

पता नहीं मिट्टी-बाँस-कूची-रंग-सजावट के सामानों के सहारे बड़े जतन से, दिन-हफ़्ते-महीने लगाकर देवी-देवताओं के स्वरूप को साकार करवानेवाले मूर्तिकारों को मोह होता होगा या नहीं?

कहा जा सकता है कि वो मूर्तिकार पैसे लेकर मूर्तियाँ बेचते हैं इसलिए उनका मन व्यवसायी हो जाता होगा.

मगर जिस किसी ने भी अपने जीवन में काग़ज़ के एक पन्ने पर भी कभी कोई चित्र उकेरने की कोशिश की होगी, चिड़िया-सूरज-पेड़-पहाड़ ही क्यों ना बनाया होगा, उन्हें पता होगा कि चाहे कोई रचना किसी भी उद्देश्य से क्यों ना की गई हो, भीतर यदि कल्पना ना हो, जज़्बात ना हो, तो उसमें कोई बात आ ही नहीं सकती.

देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ फ़ैक्ट्रियों में नहीं बनतीं, इंसान के हाथों से बनती हैं, कल्पना से बनती हैं, भावना से बनती हैं.

प्रख्यात बांग्ला साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय ने बताया है कि कैसे पहले के दिनों में मूर्तिकार को बुलाया जाता था, वो घरों में आकर प्रतिमाएँ बनाते थे, और कैसे माँ दुर्गा की प्रतिमा के अंतिम हिस्से - माँ के तृतीय नेत्र - को बनाने से पहले वो काफ़ी देर तक ध्यान लगाते थे, और फिर ब्रश की एक धार से माँ दुर्गा की प्रतिमा को अंतिम रूप दिया करते थे.

जो मूर्तिकार अपनी कल्पना को कूची तक पहुँचाने के लिए ध्यान लगा सकते होंगे, क्या उन्हें मोह नहीं होता होगा?

शायद होता होगा, मगर उन्होंने उस मोह पर विजय पाई होगी. और मोह से भी पहले अपने आत्ममोह पर विजय पाई होगी.

तभी तो मूर्तियाँ दिखती हैं, मूर्तिकार नहीं दिखते, ना ही कहीं उनका नाम तक दिखता है.

ऐसे व्यक्तिपूजन, आत्मप्रतिष्ठा वाले दौर में, जब काम से अधिक नाम की महिमा हो, हीरो-हीरोईन फ़िल्मों में कम टीवी पर अधिक दिखाई देते हों, खेल से अधिक चर्चा खिलाड़ियों की होती हो, रिपोर्टें कम और रिपोर्टर अधिक नज़र आते हों, लेखक-कवि पढ़े कम, दिखाई और सुनाई अधिक देते हों, बहस नेतृत्व और नीतियों को लेकर कम, नेताओं को लेकर अधिक होती हो - ऐसे इस समय में, माँ दुर्गा-माँ सरस्वती-श्रीगणेश की प्रतिमाओं के विसर्जन का वो क्षण, मोह और आत्ममोह को समझने का और उसपर विजय पाने का मंत्र दे जाता है.

वही मंत्र, जो कभी दास कबीर दे गए थे, ये कहकर - उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दरसन का मेला.

ईश्वर से सिफ़ारिश

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | शनिवार, 01 अक्तूबर 2011, 14:25

टिप्पणियाँ (28)

मैं ऐसी किसी भी बात को नहीं मानता जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. इसलिए स्वाभाविक तौर पर ईश्वर को भी नहीं मानता.

लेकिन जब किसी पर बहुत रहम आता है तो बरबस ही मुंह से निकलता है, हे ईश्वर, इन्हें क्षमा करना. मेरा तो कोई ईश्वर है नहीं, सो ये सिफ़ारिश उनके ही ईश्वर से की गई होती होगी, जिसके लिए दुआ मांगी जा रही है. मैं नहीं जानता कि उनका ईश्वर, अल्लाह और गॉड उन्हें क्षमा करता है या नहीं.

ये चर्चा इसलिए कि इस समय दिल चाहता है कि बहुत से लोगों के लिए उनके ईश्वर से सिफ़ारिश की जाए कि वह उन्हें क्षमा कर दे.

सूची बहुत लंबी है लेकिन सबसे पहले नाम मोंटेक सिंह अहलूवालिया का आता है जिन्होंने कहा है कि जो शहरी व्यक्ति प्रतिदिन 32 रुपए और ग्रामीण 25 रुपए हर रोज़ खर्च करता है, वह ग़रीब नहीं है.

विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के चहेते मोंटेक सिंह अहलूवालिया की इस रिपोर्ट से पहले योजना आयोग की ही एक और रिपोर्ट में आंकड़ा दिया गया था कि देश में 78 प्रतिशत लोग 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम में गुज़ारा करते हैं.

योजना आयोग की इस सूझ के ख़िलाफ़ बहुत कुछ कहा जा चुका है और अब सिर्फ़ यही कहने को जी चाहता है, 'हे, ईश्वर उन्हें क्षमा करना.'

ऐसी ही सिफ़ारिश अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए भी करने को जी चाहता है. एक बार नहीं बार-बार. कभी इसलिए कि वे कहते हैं कि वे देश में महंगाई को कम नहीं कर सकते क्योंकि उनके पास जादू की कोई छड़ी नहीं है, तो कभी इसलिए कि वे महंगाई और ग़रीबी के शोर के बीच अपने थैले से तरह-तरह की जादुई छड़ियाँ निकालते हैं कि देश में विकास की दर किसी तरह आठ प्रतिशत के आसपास बनी रहे.

और कभी इसलिए कि वे अपने मंत्रालयों के घोटालों के बारे में यह कहकर पल्ला झाड़ना चाहते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय को इसकी जानकारी नहीं थी.

भारत के प्रधानमंत्री के पद को इतना बेचारा बना देने के लिए पता नहीं उनका ईश्वर उन्हें माफ़ करेगा भी या नहीं.

यूपीए सरकार की माई बाप सोनिया गांधी के ईश्वर से उनके लिए क्षमा याचना करने को जी चाहता है जो अपने आपको आम जनता के पक्ष में खड़ा दिखाना चाहती हैं लेकिन अपनी सरकार के इन कारनामों पर कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करतीं.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के कथित युवराज के लिए भी ऐसी ही दुआ उठती है, जो चुनिंदा विषयों पर अपनी राय रखते हैं और शेष पर आंखे मूंद लेते हैं.

नरेंद्र मोदी के ईश्वर से उन्हें क्षमा कर देने की सिफ़ारिश करने को जी चाहता है, जो सद्भावना उपवास कर रहे हैं और साथ में वयोवृद्ध भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के लिए भी जो एक बार फिर रथयात्रा निकाल रहे हैं.

वैसे तो प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के समूचे नेतृत्व के लिए यही दुआ निकलती है जिसे महंगाई और ग़रीबी राजनीतिक का मुद्दा नहीं दिखता, सिर्फ़ घोटाला और भ्रष्टाचार दिखता है, जो उनके अपने मुख्यमंत्री भी अपने-अपने राज्यों में कर रहे हैं.

मीडिया के आकाओं के ईश्वर से प्रार्थना करने को दिल चाहता है, जिसके बारे में एक बार मूर्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी ने कहा था कि वे 'सब्ज़ी बेचकर क्रांति' करना चाहते हैं.

पता नहीं, इन सबका ईश्वर, अगर वो कहीं है, तो प्रार्थनाएँ सुनता है या नहीं.

सचिन और शोएब.....

रेहान फ़ज़ल रेहान फ़ज़ल | सोमवार, 26 सितम्बर 2011, 00:38

टिप्पणियाँ (29)

मैं उस दिन सेंचुरियन मैदान सुबह आठ बजे ही पहुँच गया था. भारत और पाकिस्तान विश्व कप के सुपर सिक्स में पहुँचने के लिए महत्वपूर्ण मैच खेल रहे थे. स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था.
पाकिस्तान ने टॉस जीतकर पहले खेलने का फ़ैसला किया था.
सईद अनवर ने जिस तरह बुलेट ट्रेन वाली पारी खेली थी,पवेलियन में मौजूद भारतीय दर्शकों की बॉडी लेंग्वेज बिगड़ गई थी.
राज सिंह डूँगरपुर कह रहे थे लड़के थके हुए नज़र आ रहे हैं.पाकिस्तान ने 273 रन बनाए थे और ज़्यादातर विशेषज्ञ कह रहे थे कि मैच भारत के हाथ से निकल चुका था.सचिन तेंदुल्कर और वीरेंद्र सहवाग क्रीज़ पर उतरे.आम तौर से सहवाग पहली गेंद खेलते हैं.
उस दिन सचिन ने पहले स्टॉन्स लिया. वसीम अकरम की तीसरी गेंद पर उन्होंने चौका लगाया. दूसरे ओवर में शोएब अख़्तर गेंद फेंकने आए.
शोएब के ओवर की चौथी गेंद ऑफ़ स्टंप से दो फ़ुट बाहर थी लेकिन उसकी गति थी 151 किलोमीटर प्रति घंटा ! सचिन अगर उस गेंद को छोड़ देते तो शर्तिया वाइड होती. लेकिन उन्हें शोएब से अपना हिसाब चुकता करना था. उन्होंने पूरी ताक़त से उसपर अपर कट लगाया और गेंद छह रनों के लिए डीप बैक्वर्ड प्वाएंट बाउंड्री पर जा उड़ी.

शोएब ने अपने मील भर लंबे रन अप से बेन जॉन्सन के अंदाज़ में दौड़ना शुरू किया. इस बार गति थी उससे भी तेज़ ....154 किलोमीटर प्रति घंटा ! सचिन ने इस बार गेंद को स्कवायर लेग बाउंड्री की तरफ़ ढ़केला. इस शॉट ने शोएब को इतना हतोत्साहित कर दिया कि लगा कि वह अपने बॉलिंग मार्क पर ही नहीं पहुंचना चाह रहे. लेकिन अभी कहानी ख़त्म नहीं हुई थी.

शोएब की अंतिम गेंद को सचिन ने ऑफ़ स्टंप पर शफल करते हुए महज़ ब्लॉक भर किया. कोई बैक लिफ़्ट नहीं, कोई फ़ौलो थ्रू नहीं.... किसी की शायद ज़रूरत भी नहीं थी. कोई अपनी जगह से हिल भी पाता इससे पहले गेंद मिड ऑन बाउंड्री के रस्से को छू रही थी. अब तक दर्शक पागल हो चुके थे.
शोएब अख़्तर के जले पर नमक छिड़का उन्हीं के कप्सान वकार यूनुस ने जब उन्होंने अगले ही ओवर में शोएब को गेंदबाजी से हटा लिया. हाँलाकि अंतत: शोएब ने थके हुए रनर के सहारे खेल रहे सचिन तेंदुल्कर को एक शॉर्ट पिच गेंद से आउट किया लेकिन तब तक सचिन 75 गेंदों पर 98 रन बना चुके थे और भारत जीत की ओर बढ़ रहा था.

शोएब अख़्तर ने दस ओवरों में 72 रन दिए थे जो उनका एक दिवसीय क्रिकेट में अब तक का सबसे कीमती स्पेल था. 32 के स्कोर पर जब सचिन का एक मुश्किल कैच अब्दुल रज़्ज़ाक ने मिस किया तो मैदान पर ही चिल्ला कर वसीम अकरम ने उनसे कहा था, 'जानता है किसका कैच तूने छोड़ा है.'

जब सचिन लंगड़ाते हुए पवेलियन लौटे तो स्टेडियम का एक एक आदमी अपने स्थान पर खड़ा था. मैं भी उनमें से एक था. मेरे ख़्याल से उसी दिन चेतन शर्मा की आख़िरी गेंद पर जावेद मियाँदाद द्वारा लगाए गए छक्के का बदला ले लिया गया था.

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